कह तो सभी यही रहे हैं–"बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है।" लेकिन इस बड़े सच रोटी यानी पेट भरने की खाद्य-सामग्री को मिलावट के कारण दूषित एवं जानलेवा कर दिया गया है। देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। किसी भी वस्तु की शुद्धता के विषय में हमारे संदेह एवं शंकाएं बहुत गहरा गयी हैं। मिलावट का धंधा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है और इसकी जड़ें काफी मजबूत हो चुकी हैं। जीवन कितना विषम और विषभरा बन गया है कि सभी कुछ मिलावटी है। सब नकली, धोखा, गोलमाल ऊपर से सरकार एवं संबंधित विभाग कुंभकरणी निद्रा में है।
मिलावट करने वालों को न तो कानून का भय है और न आम आदमी की जान की परवाह है। दुखद एवं विडम्बनापूर्ण तो ये स्थितियां हंै जिनमें खाद्य वस्तुओं में मिलावट धडल्ले से हो रही है और सरकारी एजेन्सियां इसके लाइसैंस भी आंख मूंदकर बांट रही है। जिन सरकारी विभागों पर खाद्य पदार्थों की क्वॉलिटी बनाए रखने की जिम्मेदारी है वे किस तरह से लापरवाही बरत रही है, इसका परिणाम आये दिन होने वाले फूड प्वाइजनिंग की घटनाओं से देखने को मिल रहे हैं। मिलावट के बहुरुपिया रावणों ने खाद्य बाजार जकड़ रखा है।
रोटी-खाद्य वस्तुओं पर मंडरा रहा मिलावट का खतरा एक गंभीर समस्या है। रोटी केवल शब्द नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी परिभाषा समेटे हुए है अपने भीतर। जिसे आज का मनुष्य अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर लेता है। रोटी कह रही है-"मैं महंगी हूँ तू सस्ता है।" यह मनुष्य का घोर अपमान है। रोटी कीमती, जीवन सस्ता। मनुष्य सस्ता, मनुष्यता सस्ती। और मनुष्य अपमानित नहीं महसूस कर रहा है। यह सबसे बड़ा खतरा है। मारने वाला कितनों को मारेगा? एक आतंकवादी स्वचालित हथियार से या बम ब्लास्ट कर अधिक से अधिक सौ दो सौ को मार देता है। लेकिन खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वाला हिंसक एवं दरिंदा तो न जाने कितनों को मृत्यु की नींद सुलाता है, कितनों को अपंग और अपाहिज बनाता है।
जीवन मूल्यहीन और दिशाहीन हो रहा है। हमारी सोच जड़ हो रही है। मिलावट, अनैतिकता और अविश्वास के चक्रव्यूह में जीवन मानो कैद हो गया है। दूध, घी, मसाले, अनाज, दवाइयां तथा अन्य रोजमर्रा के उपयोग एवं जीवन निर्वाह की शुद्ध वस्तुएं किसी भाग्यशाली को ही मिलती होंगी। घी के नाम पर चर्बी, मक्खन की जगह मार्गरीन, आटे में सेलखड़ी का पाउडर, हल्दी में पीली मिट्टी, काली मिर्च में पपीते के बीज, कटी हुई सुपारी में कटे हुए छुहारे की गुठलियां मिलाकर बेची जा रही हैं। दूध में मिलावट का कोई अंत नहीं। नकली मावा बिकना तो आम बात है। राजस्थान और गुजरात में चल रहा नकली जीरे का कारोबार अब दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्सो तक पहुंच गया है। दिल्ली में पहली बार पकड़ी गई नकली जीरे की खेप ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है और न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला, कैसी अराजक शासन व्यवस्था है?
मिलावट के कारण हम एक बीमार समाज का निर्माण कर रहे हैं। शरीर से रुग्ण, जीर्ण-शीर्ण मनुष्य क्या सोच सकता है और क्या कर सकता है? मिलावटी खाद्य पदार्थों से हजारों लोग रोगी बनते हैं। मिलावट करने वाले यह नहीं सोचते कि उनके कारण कितनों को ही अकाल मौत का सामना करना पड़ रहा है। क्या वे परोक्ष रूप से जनजीवन की सामूहिक हत्या का षड्यंत्र नहीं कर रहे? हत्यारों की तरह उन्हें भी अपराधी मानकर दंड देना अनिवार्य होना चाहिए। मिलावट एक ऐसा खलनायक है, हत्यारी प्रवृत्ति है, जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो रही है।
इस मामले में जिस तरह की सख्ती चाहिए, वैसी दिखाई नहीं दे रही है। ऐसी भयंकर स्थिति के बावजूद सरकारें और हम उदासीन क्यों हैं? चाहे प्रचलित खाद्य सामग्रियों की निम्न गुणवत्ता या उनके जहरीले होने का मततब इंसानों की मौत भले ही हो, पर कुछ व्यापारियों एवं सरकारी अधिकारियों के लिए शायद यह अपनी थैली भर लेने का एक मौका भर है।
खाद्य सामग्रियों में मिलावट के जिस तरह के मामले आ रहे हैं, उससे तो लगता इंसान के जीवन का कोई मूल्य नहीं है। पिछली दिवाली पर छापेमारी में बड़ी मात्रा में सिंथेटिक दूध और खोया जब्त किया तो पता चला कि मिलावट करने वाले किस तरह हमारी जान के साथ खिलवाड़ करने में लगे हुए हैं। वे मावे में चॉक पाउडर से लेकर डीजल तक मिला रहे हैं। इसके अलावा वे मिठाई बनाने में सिंथेटिक कलर और साबुन बनाने के काम में आने वाले तेल का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसी मिलावटी मिठाइयां खाने से अपच, उलटी, दस्त, सिरदर्द, कमजोरी और बेचैनी की शिकायत हो सकती है। इससे किडनी पर बुरा असर पड़ता है। पेट और खाने की नली में कैंसर की आशंका भी रहती है।
खाद्य उत्पाद विनियामक भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2006 के खाद्य सुरक्षा और मानक कानून में कड़े प्रावधान की सिफारिश की थी। कानून को सिंगापुर के सेल्स आफ फूड एक्ट कानून की तर्ज पर बनाया गया जो मिलावट को गम्भीर अपराध मानता है। फूड?इंस्पैक्टरों का दायित्व है कि वह बाजार में समय-समय पर सैम्पल एकत्रित कर जांच करवाएं लेकिन जब सबकी 'मंथली इन्कमÓ तय हो तो फिर जांच कौन करे? हालत यह है कि बाजारों में धूल-धक्कड़ के बीच घोर अस्वास्थ्यकर माहौल में खाद्य सामग्रियां बेची जा रही है। अनेक कानूनों के बावजूद मिलावट धडल्ले से हो रही है। कौन मंथन करेगा इस विष और विषमता को निकालने के लिए। मानहानि के शोर में मानव हानि दब गई है। पर हम हैं कि भ्रम पाले हुए हैं कि कोई फरिश्ता बनकर आएगा और सब कुछ अगले सूर्योदय से पहले ठीक हो जाएगा। अगर संबंधित अधिकारी स्थिति को और बिगडऩे ना दे, तो कम-से-कम भविष्य में मिलावट से होने वाली बीमारियों के कारण मरने वाले लोगों की संख्या को और बढऩे से रोका जा सकता है। ऐसा किया जाना जरूरी भी है। लोगों को मरने भी तो नहीं दिया जा सकता। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि देश में सरकार और जनता, दोनों के लिये यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। दुखद तो यह भी है कि राजनीतिक दलों के लिये तो इस तरह के मुद्दे कभी भी प्राथमिकता बनते ही नहीं। सीएजी ऑडिट के दौरान जो तथ्य उजागर हुए हैं, वे भ्रष्टाचार को तो सामने लाते ही है साथ-ही-साथ प्रशासनिक लापरवाही को भी प्रस्तुत करते हैं। जीवन से जुड़े इस मामले में भी गंभीरता नहीं बरती जा रही और आधे से ज्यादा लाइसैंस देने के मामलों में दस्तावेज आधे-अधूरे पाए गए। ऐसी हालत में देश में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता बनाए रखने का काम करने वाली सरकारी एजेन्सी की दशा कितनी दयनीय है और वहां कितनी लापरवाही बरती जा रही है, सहज अनुमान लगाया जा सकता है। हमें सोचना चाहिए कि शुद्ध खाद्य पदार्थ हासिल करना हमारा मौलिक हक है और यह सरकार का फर्ज है कि वह इसे उपलब्ध कराने में बरती जा रही कोताही को सख्ती से ले। देश में ऐसा कोई बड़ा जन-आन्दोलन भी नहीं है, जो मिलावट के लिये जनता में जागृति लाए। राजनीतिक दल और नेता लोगों को वोट और नोट कबाडऩे से फुर्सत मिले, तब तो इन मनुष्य जीवन से जुड़़े बुनियादी प्रश्नों पर कोई ठोस काम हो सके।
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